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Saturday, March 29, 2014

विरासते तो बनती, उजड़ती रहती है.......

                                 

          एक कविता आप सभी कि नज़र..........

विरासते तो बनती, उजड़ती रहती है ,
इंसान कभी सुल्तान ,तो कभी फ़क़ीर रहता है l



मरते तो यहां सब ही है, मगर "रौसा " 
जीते वही है , जिन्दा जिनका जमीर रहता है....

और युं गम न किया कर,
टूटे झोपड़ो को देख़ कर l
इन महलों में कौन सा अमीर रहता है... 

मिलना और बिछड़ना,
तो सिलसिला है, चलता रहेंगा 
अपना साया भी उजालों तक ही,
करीब रहता है.......

और क्या ढूंढ़ता है उसको 
यहाँ - वहा , मंदिर मस्जिद
और हाथों कि लकीरो में,

तेरे घर कि चौकठ में ही
तेरा नसीब रहता है...

विरासते तो बनती, उजड़ती रहती है
इंसान कभी सुल्तान ,तो कभी फ़क़ीर रहता है…

दीपक "रौसा"

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